साल 2011,तरीख 13 जुलाई, मुंबई में 3 सीरियल बम ब्लास्ट हुई 18:54 और 19:06 IST
एक रॉयल ओपेरा हाउस,दूसरा झावेरी बाजार और तीसरा दादर वेस्ट का इलाक़ा,जिसमें 26 लोग मारे गए और 130 घायल हुए! तीन दिन हुए मैने टी वी पर य़ह समाचार देखी!इस ब्लास्ट मेँ के सन्दर्भ में श्री दिग्विजय सिंहजी व qqश्री शाहनवाज़,श्री एम.ए.नकवीजी के बयान सुने.काफी गंभीर मानसिकता से बयान दिया गया हो,ऐसा नहीं लगा!
सम्भवतः पक्ष व प्रतिपक्ष ने अपना दायित्व वक्तव्य देकर ही निभा दिया! विश्वास था जल्द ही इस के पीछे के लोगों
का पर्दाफाश होगा और उन्हें सजा मिलेगी!आखिर 1990 से 2025 तक अगर देखें तो काफी अधिक बार मुंबई आतंकवादी ब्लास्ट जैसी वारदातों से दहला है! 25 अगस्त 2003 मुंबई सीरिअल ब्लास्ट, 2005 दिल्ली बॉम्ब ब्लास्ट और 2006/11 जुलाई को मुंबई लोकल ट्रेन में हुई 7 बॉम्ब ब्लास्ट के बाद समझौता एक्सप्रेस में 8 सितंबर 2006 को मालेगाँव,नासिक में,2006 वाराणसी में,18 फरवारी 2007 को पानीपत, 2008/26 जुलाई को अहमदाबाद,गुजरात में 17 ब्लास्ट हुई थी!13 सितंबर
2008 को दिल्ली में सीरिअल ब्लास्ट हुई,26 नवंबर से 2008 को मुंबई ताज मान सिंह होटल में आतंकवादी हमला हुआ था! 2008 में डेनिश एएमबैसी में ब्लास्ट,बैंगलोर में 25 जुलाई 2008 को सीरिअल ब्लास्ट,जयपुर में ब्लास्ट, 13 मई 2008 को हुए सीरिअल ब्लास्ट, जर्मन बेकरी ब्लास्ट, पुणे में 13 फ़रवरी को और फिर 17 सितंबर 2011 को आगरा में ब्लास्ट, 7 सितंबर 2011 को मुंबई में सीरिअल ब्लास्ट य़ह हो संक्षिप्त विवरण है आतंकवादी वारदातों का....जिसे उसका टाइम लाइन कहते हैं!पहले की भांति इस बार भी जल्दी ही केस सुलझा लिया गया! वारदात में देसी आतंकवादियो के मॉड्यूल का खुलासा हुआ!
इंडियन मुजाहिदीन एक भारतीय मूल के आतंकी संगठन है, उसका नाम आया और उनकी मदद करनेवाले पाकिस्तानी नागरिकों का भी!
मुंबई पुलिस व राज्य और केन्द्र की अथक परिश्रम से "होम ग्रोन टेरर" की बात तो साबित हुई उसके पीछे के "विदेशी चेहरों " को भी बेनक़ाब किया गया!
CCTV में देकर पकड़े गए दो पाकिस्तानी बॉम्बरस और उनके साथी की तार IM के मास्टर्समाइंड यासीन भटकल और रियाज़ भटकल से जुड़े थे और गोवा एयरपोर्ट पर पकड़े गए दुबई फ्लाइट के इंतजार में खड़े अब्दुल मतीन फक्की की गिरफ्तारी से ATS मुंबई को सबूत मिला की वो हमारी आतंकवादी संगठनों को हवाला के माध्यम से धन पहुंचाता रहा है खास कर IM के सह संस्थापक यासीन भटकल को!
*आज मेँ अपने विचारों से पहले उस व्यक्ति के इस्लाम और जिहाद पर विचार लिखूँगी जिनके विचार मुझे काफ़ी
प्रभावित करते रहे हैं!हालाँकि उनको लिखे और अब गुजरे हुए भी सालों हो गए हैं! जिहाद का सामान्य अर्थ धर्मयुद्ध है, किंतु आरंभ में, य़ह शब्द इतना भयानक अर्थ नहीं देता था! जिहाद शब्द जहाद धातु से निकला है,जिसका अर्थ ताकत,शक्ति या योग्यता होता है! क्लेन नामक एक विद्वान ने जिहाद का अर्थ संघर्ष किया है और इस संघर्ष के उसने 3 क्षेत्र माने हैं,
1)-दृश्य शत्रु के विरुद्ध संघर्ष,
2)- अदृश्य शत्रु के विरुद्ध संघर्ष, और
3)--इन्द्रियों के विरुद्ध संघर्ष
साधारणतय: विद्वानों का य़ह मत है कि इस्लाम के प्राचार
के लिए जो लड़ाइयाँ लड़ी गई, उन्हें पवित्र विशेषण देने के लिए ही इस शब्द का प्रचलन किया गया!किन्तु, मोहम्मद अली (रिलीजन ऑफ इस्लाम के लेखक) का मत है कि इस शब्द का अर्थ इस्लाम के प्राचार के लिए युद्ध करना नहीं है! मक्का में उतरनेवाले कुरान के में जहाँ जहाँ य़ह शब्द आया है, वहाँ वहाँ इसका अर्थ परिश्रम, उद्योग या सामान्य संघर्ष ही है! लड़ने की इजाजत नबी ने तब दी, जब वे भाग कर मदीने पहुंचे,या जब वे मक्का छोडकर भागने की तैयारी में थे! मदीने में आत्मारक्षा के लिए तलवार उठाना आवश्यक हो गया,तभी लड़ाइयाँ जिहाद के नाम से चलने लगीं,किन्तु, यहाँ भी जिहाद का व्यापक अर्थ है, और उसके भीतर वाणी और तलवार दोनों के लिए स्थान है!
हादिस हज की भी गिनती जिहाद में करता है और कहता है, "नबी ने कहा है कि सबसे अच्छा जिहाद हज में जाना है, "किन्तु पीछे चलकर काज़ीओ ने (न्यायपतियों )ने जिहाद का अर्थ युद्घ कर दिया मोहम्मद अली के मतानुसार, विधर्मियों को तलवार के ज़ोर से इस्लाम लाने की शिक्षा कुरान ने नहीं दी, ना ये बात नबी के ही दिमाग में थीं! लड़ने की इजाजत नबी वहीं देते थे, जहाँ आत्मरक्षा का प्रश्न होता था! किन्तु,जब मुल्ला और काज़ी सर्वेसर्वा
बन बैठे,तब उन्होंने सारी दुनिया को दो हिस्सों में बाँट दिया.जिस हिस्से में मुसलामान सुखी और स्वतंत्र थे, यानि जिस हिस्से पर उनकी हुकूमत थे उसे तो उन्होंने दारूल-इस्लाम (शांति-का देश) कहा इसके विपरित, धरती के जिस हिस्से में पर उनका आधिपत्य नहीं था, उसे दारूल-हरब (युद्ध-स्थल) कहकर उन्होंने मुसलामानों को उत्तेजित किया कि ऐसे देशों को जीत कर वहाँ इस्लाम का झंडा गाड़ना चाहिए!
और ऐसा हुआ भी दारूल हरब (युद्धस्थल )कहकर उन्होंने मुसलामानों को उत्तेजित किया कि ऐसे देशों को जीत कर वहाँ इस्लाम का झंडा गाड़ना चाहिए!
और ऐसा हुआ भी,दारूल हरब में झंडा गाड़ना जेहादियों का परम कर्त्तव्य है, किंतु किसी लेखक ने भी लिखा है कि विश्व भर में इस्लामसाम्राज्य स्थापित करने की कल्पना मुहम्मद साहिब के मन में भी जगी थी! वे अक्सर कहते थे,"तुम्हें मानना चाहिए कि हर एक मुस्लिम हर दूसरे मुस्लिम का अपना भाई है, तुम सबके सब आपस में समान हो,"
"अपने जीवन के अंत तक आते आते,उनकी धारणा य़ह हो गई थी की सारी पृथ्वी को एक धर्म के अधीन होना चाहिए! सारे संसार के लिए एक नबी और एक ही धर्म हो, य़ह भाव उनमें जग चुका था,"
इस्लाम का आरंभ धर्म से हुआ था, किन्तु बढ़ कर वह राज्य और सेना का संगठन भी बन गया. इस प्रकार, इस्लामी राज्य, इस्लामी राष्ट्र, इस्लामी संस्कृति
सबके साथ धर्म का जोश लिपट गया! पहले तो धर्म के अवशेष से ही राज्य की स्थापना हुई थी!पीछे, राज्य की शक्ति-वृद्धि से धर्म का भी प्रताप बढ़ने लगा! ईसाई देशों में पादरी अलग और राजा अलग थे! किंतु इस्लामी देशों का धर्म गुरु और राजा,दोनों एक ही व्यक्ति होने लगा! इस प्रकार,धर्म से तलवार की तेजी बढ़ी और धर्म का बल बढ़ने लगा.
इस्लाम के देखा-देखी भारत में सिख-सम्प्रदाय का संगठन भी इसी सिद्धांतों पर किया गया था!
स्वर्गीय श्री विवेकानंद जी नें रामकृष्ण परमहंस के साधना पूर्वक धर्म की जो अनुभूतियों थी, उनसे व्यावहारिक सिद्धांत निकाले, अपने छात्र जीवन में वे उन हिन्दू युवाओं के साथी थे,जो यूरोप के उदार एवं विवेकशील चिंतन की विचारधारा पर अनुरक्त थे तथा जो ईश्वरीय सत्ता एवं धर्म को शंका से देखते थे!विवेकानंद का आदर्श उस समय यूरोप था एवं यूरोपीय उद्धमता को वे पुरुष का सबसे तेजस्वी लक्षण मानते थे!
स्वामीजी हिन्दुत्व की शुद्धि के लिए उठे थे तथा उनका प्रधान क्षेत्र धर्म था! किन्तु धर्म और संस्कृति, ये परस्पर एक दूसरे का स्पर्श करते चलते हैं! भारतवर्ष में राष्ट्रीय पतन के कई कारण आर्थिक और राजनीतिक थे, किन्तु, बहुत से कारण इसे भी थे, जिनके संबंध धर्म से था!अतएव, उन्होंने धर्म का परिष्कार भारतीय समाज की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रख कर करना प्रारंभ किया और इस प्रक्रिया में उन्होंने कड़ी से कड़ी बातें भी निर्भीकता से कहीं से कह थीं! उनके समय में ही य़ह प्रत्यक्ष हो गया था कि भारत यूरोप के समान राजनीतिक शक्ति lहोना चाहता है!इसकी उपयोगिता स्वीकार करते
हुए भी उन्होंने य़ह चेतावनी दी थी कि, "भारतवर्ष की रीढ़ की हड्डी धर्म है ".वाह दिन बुरा होगा,जब य़ह देश अपनी आध्यात्मिक रीढ़ को हटा कर उसकी जगह पर एक राजनैतिक रीढ़ बैठा लेगा!
हिन्दुत्व के प्रबल समर्थक और विश्व प्रचारक होने पर भी उनमें इस्लाम के प्रति कोई द्वेष नहीं था! उनके गुरु परमहंस ने तो 6 महीनों तक,विधिवत मुसलामान हो कर
इस्लाम की साधना की थी! इस संस्कार से कारण इस्लाम के प्रति उनका दृष्टिकोण यथेष्ट रूप से उदार था! उन्होंने कहा है कि, "य़ह तो कर्म का फल ही था कि भारत को दूसरी जातियों ने गुलाम बनाया!किन्तु, भारत ने भी अपने विजेताओं में से प्रत्येक पर संस्कृतिक विजय प्राप्त की!मुसलामान इस प्रक्रिया के अपवाद नहीं हैं! शिक्षित मुसलमानों, प्राय सूफ़ी होते हैं जिनके विश्वास हिन्दुओं के विश्वास से भिन्न नहीं होते!इस्लामी संस्कृति के भीतर भी हिन्दू-विचार प्रविष्ट हो गए हैं!विख्यात मुगल सम्राट अकबर हिन्दुत्व के काफी समीप था!यहीं नहीं, प्रत्युत, काल-कर्म में इंग्लैंड पर भी भारत का प्रभाव पढ़ेगा."
सिस्टर निवेदिता की पुस्तक "माइ सिस्टर " में उल्लेख है कि एक बार स्वामी जी ने 3-4 दिनों के लिए समाधि से लौट कर उनसे बोले, "मेरे मन में य़ह सोच कर बराबर क्षोभ उठता था कि मुसलामानों ने हिन्दुओं के मंदिरों को क्यों तोड़ा,उनके देवी देवताओं की मूर्तियां को क्यों भ्रष्ट किया? किन्तु, आज माता काली ने मेरे को आश्वासत कर
दिया! उन्होंने मुझसे कहा,"अपनी मूर्तियां का में ख्याल रखूं या तोड़ दूँ या तोड़वा दूँ, य़ह मेरी इच्छा है! इन बातों पर सोच-सोच कर तू क्यों दुखी होता है?
किन्तु इस्लाम,मुख्यतः--"भक्ति का मार्ग है तथा हज़रत मुहम्मद का पंथ देह- धन दान,सन्यास और वैराग्य को महत्व नहीं देता! किन्तु, विवेकानंद की व्याख्या का वेदांत "निवृति" से मुक्त शुद्ध "प्रवृति" का मार्ग था एवं सात्विक दृष्टि से इस्लाम दृष्टि से इस्लाम का प्रवृत्ति मार्ग से उसका कोई विरोध नहीं था! इसलिए स्वामीजी की कल्पना थी इस्लाम की व्यावहारिकता को आत्मसात किए बिना वेदांत के सिद्धांत जनता के लिए उपयोगी नहीं हो सकते! सन 1898 में उन्होंने एक चिट्ठी में 'हमारी जन्मभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके 2 धर्म, हिन्दुत्व और इस्लाम, मिलकर एक हो जाएं!
"वेदांती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खड़ा होगा, वही भारत की आशा है,"
विश्व-धर्म, विश्व-बंधुत्व और विश्ववाद की भावना का आरंभ इसी दौर में हुआ!स्वामी विवेकानंदजी ने हिन्दुत्व के सौरभौम रूप का और भी व्यापक विस्तार किया!हिन्दुत्व और इस्लाम, मिलकर एक हो जाएं!
*आतंकवाद के सन्दर्भ में धर्म व उसके वैश्विक प्रचार और ज़मीनी -क्षेत्रफल पर भी अधिकार कर शासन व्यवस्था अपनी मुट्ठी में करने की मानसिकता ने, "खूनी, यानि सशस्त्र युद्धरूपी जिहाद," को बढ़ावा दिया!ये मेरे मौलिक विचार हैं!
स्वामी विवेकानंदजी ने धर्म को व्यक्ति और समाज, दोनों के लिए उपयोगी माना है! धर्म के विरुद्ध संसार में जो भयानक प्रतिक्रिया उठी है, उसका निदान संसार में धर्मों पर एकता कैसे लायी जाए,इस का समाधान नहीं मिलता!
प्राचीन काल में अनेक लोग य़ह मानते थे की जो धर्म सबसे अच्छा हो, संसार भर के मनुष्यों को उसी धर्म में दीक्षित हो जाने चाहिए! इसका परिणाम य़ह हुआ कि प्रत्येक धर्म के लोग अपने ही धर्म का व्यापक प्रचार करने लगे, जिनमें से इस्लाम और ईसाईयत के प्रचारकों ने सब से अधिक उत्साह दिखलाया! शिकागो में जो विश्व-धर्म-सम्मेलन हुआ था, उसका भी एक आशय य़ह था कि संसार में सर्वोत्तम धर्म कौन-सा है,इसका निर्णय कर लिया जाए!किन्तु, उस सम्मेलन में विवेकानंदजी के विचारों से सभी चमत्कृत हो गए!
उन्होंने कहा कि, "आत्मा की भाषा एक है, किंतु, जातियों की भाषाएँ अनेक होती हैं,धर्म आत्मा की वाणी है, वही वाणी अनेक जातियों की विविधता भाषणों तथा रीति-रिवाज़ो में अभिव्यक्त हो रही है!"
कुछ लोग धर्म अफीम की नशा की तरह मानते हैं और धार्मिक कट्टरता और उससे उत्तपन्न रूढ़ियों, रहस्यवाद की परते -जिसका दुरुपयोग अंधविश्वास को फैलाने में किया जाता है,अंधधार्मिकता ने रक्तपात,दंगों,भीषण युद्धों का रूप लिया है!हमारे और कई दूसरे देशों का रक्त-रंजीत विभाजन और मौजूदा दौर में आतंकवाद इसी की उपज है! य़ह मौलिक विचार हैं! स्वामी विवेकानंदजी ने धर्म को व्यक्ति और समाज दोनों के लिए उपयोगी माना है!धर्म को व्यक्ति और समाज के लिए उपयोगी माना है! धर्म के विरुद्ध संसार मेँ जो भयानक प्रतिक्रिया उठी है, उसका निदान वह य़ह कह कर देते थे कि दोष धर्म का नहीं,धर्म के विरुद्ध संसार मे जो भयानक प्रतिक्रिया उठी है, उसका निदान वह यह कर देते थे कि दोष धर्म का नहीं,धर्म के गलत प्रयोग का है, ठीक वैसे ही, जैसे विज्ञान से उठने वालीं भीषणताओ का दायित्व विज्ञान पर नहीं हो कर उन लोगों पर है, जो विज्ञान का गलत उपयोग करते हैं!स्वामी जी का विचार था कि, "धर्म को समझ कर जिस तरह से लागू किया जाना चाहिए था, उस तरह से वह लागू किया ही नहीं गया है!"
हिन्दू धर्म अपनी सारी धार्मिक योजनाओं को कार्य के रूप परिणत करने में असफल रहे हैं! फिर भी अगर कभी,"विश्व-धर्म-जैसा धर्म उत्पन्न होनेवाला है, तो वह हिन्दुत्व के ही समान होगा!जो, परमात्मा के समान ही, अनंत और निर्बाध होगा तथा जिसके सूर्य का प्रकाश कृष्णा और उसके अनुयायियों पर तथा संतों और अपराधियों पर एक समान चमकेगा! यह धर्म ना तो ब्राह्मण होगा, ना बुद्ध, ना ईसाई, ना मुसलमान,प्रत्युत, वह इन सब के योग और सामंजस्य से उत्पन्न होगा,"
राजा राम मोहन राय की अनुभूतियों में विश्व धर्म, विश्वाद गुंथी हुई थी! उन्होंने हिन्दू-धर्म की जो व्याख्या प्रस्तुत की भूमिका से तनिक कम नहीं है! मुक्त चिंतन, वैयक्तिक स्वतन्त्रता और प्रत्येक प्रकार का विश्वास रख कर भी धर्म-च्युत नहीं होने की योग्यता, हिन्दू धर्म के पुराने लक्षण रहे हैं!हिन्दू नास्तिक रहा है और आस्तिक भी साकारवादी भी और निराकारवादी भी, उसने महावीर का भी आदर किया और बुद्ध का भी!उसने वेदों को अपौरुषेय भी माने है और पुरषय भी! विश्वासों में य़ह जो प्रचंड भिन्नता है, उसे हिन्दू का हिन्दुत्व दूषित नहीं होता! हिन्दू जन्म से ही उदार होता है एवं "किसी एक विचार पर सभी को लाठी से हाँक कर पहुँचाने में वह विश्वास नहीं के रखता!" जब थियोसोफिस्थि लोग हिन्दुत्व का प्रचार करने लगे,तब हिन्दुत्व का यह सार्वभौम कुछ और विकसित हुआ और रामकृष्ण परमहंस ने तो बारी बारी से मुसलामानों और क्रिसतान हो कर इस सत्य पर अपनी अनुभूति की मुहर ही लगा दी कि संसार के सभी धर्म एक हैं, उनके बीच किसी प्रकार का भेदभाव मानना अज्ञानता है!
निवृतिवाद के बाद प्रवृत्तिवाद उभर कर 19 वीं सदी में आया पर 20 वीं सदी में पूर्ण रूप से निखरा! इस दौरान उसमें काफी विकृतियां भी आयी! इस सदी के दौरान, "राष्ट्रवाद की भी आँधी आयी और बीसवीं सदी के अंतिम दशक में भौगोलिकरण की लहरें भी आ गईं! साथ में क्या खूबियां और दोष लाएं य़ह चर्चा का विषय है! उम्मीद नहीं यकीन है कि इस नयी सदी, यानि 21वीं सदी में हम, "निवृति/प्रवृत्ति/राष्ट्रवाद/भौगोलिकरण,....इन सबका मिश्रण लेकिन परिष्कृत,संतुलित, संयमित रूप में "विश्वा वाद", उभर कर आएगा और निखरेगा भी! अब य़ह हम सब पर निर्भर करता है कि हम इसे किस तरह से स्वीकारते हैं! आतंकवाद का भस्मासुर इसी का एक सूत्र है जो इस रूप में खुद विश्वा पर काबिज करना चाहता है, जोकि दूरदृष्टि से देखें तो लंबे समय तक सम्भव नहीं होगा! अंततः मुस्लिम भाई "इस्लाम और जिहाद",का सही मंतव्य समझने का प्रयास करें!
धर्म,संस्कृति,समाज,जनता और सम्भवतः राजनीति भी खासकर मुस्लिम देशों में,एक दूसरे से जुड़ी हुई है!
और एक दूसरे को प्रभावित भी करती है इसलिए इन्हें सही और वैज्ञानिक रूप में समझ कर स्वीकारें!किन्तु,इसमें व्याप्त निरर्थक विकृतियों को नकारा ज़रूरी है! कबीर की पंक्तियाँ कहें तो, "सार-सार गाहि करे, थोथा देय उड़ाय",! "य़ह सब मेरे मौलिक विचार हैं राष्ट्र कवि के विचारों के साथ!!!!!
डॉ कलम श्री विभा सी तैलंग
***कल शाम को (18/07/2011), मैंने टी वी पर अरनव
गोस्वामी कि परिचर्चा सुनी- "communalisng ऑफ टेरर यानी आतंक का साम्प्रदायिकरण"....मेरे विचार से इसे आतंक का राजनीतिकरण कहा जाना चाहिए!!
मै मानती हूँ चाहें आतंक लाल, हरा, भगवा,या काला हो--वो तो बस हमारी मानसिकता है और मानसिक स्थिति भी---जिसे हम अंग्रेज़ी में "माइंडसेट" और "स्टेट ऑफ माइंड" कहते हैं ! मेरे विचार से धर्म हमारे जीवन की पद्धति है!अगर आप किसी भी चीज़ या जीव में यकीन करते हैं, और उसे महसूस करते हैं, व ईश्वर की तरह मानते हैं, उसके लिए आपकी आस्था बन जाती है!जैसे वैष्णव बाल या योगी कृष्णा में प्राण-प्रतिष्ठा कर उसकी सेवा करते हैं! "पूजो तो भगवान हैं,ना पूजो पाषाण", अर्थात् आस्था, श्रद्धा अगर मिट्टी या लकड़ी की मूर्ति में हो, वो आपके लिए ईश्वर हो जाता, वर्ना वो मात्र एक पत्थर या लड़की
की सजावट की वस्तु है! आतंकवादी तो विशुद्ध अपराधी यानि क्रिमिनलस होते हैं! और अगर वे किसी धर्म का उपयोग आम नागरिकों को डराने धमकाने के लिए करते हैं, तो भी मेँ मानती हूँ, वे लक्ष्यहीन हैं, और लक्ष्य से भटके
लोग हैं,......मिशनलेस मिसाईलस!!...
ऐसे भी आतंकवाद को बदला और बदले की भावना से की गई वारदातें का जमला पहनना य़ह उनका कोई दूर दृष्टिवाला कदम नहीं! य़ह ना तो कोई बड़ा मिशन है,ना ही जिहाद! जैसा की वो सब कहते हैं!इससे हासिल शक्तिमान होने का एहसास क्षणभंगुर होता है !
"अगर उन्हें ऐसा लगता है अपने विचारों व यकीन को हम पर थोपना चाहते हैं....कभी सशास्त्र बलपूर्वक,किसी धर्म के कंधों पर अपनी बंदूक रखा कर या फिर उनकी वह सोच जिसे किसी भी विचारधारा का नाम देकर अपनी मानसिकता का अमलीजामा पहनाते हैं, अपनी मानसिक स्थिति को थोपते हैं और भटके हुए मिसाइल की तरह कहीं भी फ़टते हैं! खूनी खेल खेलने के लिए ताकि अपने धर्म के लोगों पर एहसान कर सके, उन्हें लाभ पहुंचा सके, आपने दायरे व क्षेत्र को बढ़ाते जाएं ताकि उनके लाभ पहुंचा सके, आपने दायरे व क्षेत्रफल को बढ़ाते जाएं ताकि उनके आधिपत्यवाले राज्यों को फायदा मिले,धार्मिक और प्रशासनिक फायदा और उनकी थोपी जा सके, या फिर अपने निहित स्वार्थ की सिद्धि हो सके, दबदबा बनाने के लिए....फिर तो य़ह दुखद ही है! अगर आप इतिहास को पलट कर देखें तो जानेंगे कि कोई भी साम्राज्य मात्र आतंक फैला कर या स्वयं की सोच को थोप कर लंबे दौर में जीत हुई है! ....फिर चाहे य़ह निजी जीवन की दिनचर्या हो,राज्य में, देश में या फिर राजसत्ता में हो!
डॉ कलम श्री विभा सी तैलंग
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